पृथ्वी- तब और अब, ‘पृथ्वी’ तो तब भी वही थी ‘मां ‘ के आंचल की तरह….

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Updated 3 years ago

पृथ्वी- तब और अब

'पृथ्वी' तो तब भी वही थी 'मां ' के आंचल की तरह और अब भी वही है। बस हम ने ही इस आंचल में दाग लगाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है।कायदे में हमसे बड़ा परजीवी कोई नहीं है। हमने हमेशा दूसरों का हक हड़प कर या उससे छीन कर खुद का गुजारा किया है। आज भी हम हमारे ऐशो-आराम के लिए 'अर्थ' का 'अनर्थ ' करने से बाज नहीं आ रहे । चकाचौंध की इस दुनिया में मॉडर्न-विज्ञान को हमारा भगवान मानते हुए हम इसके गुलाम हो गए हैं।

तब यह 'पृथ्वी मां' हुआ करती थी, आज 25×50 का प्लॉट हो गई है। तब हम इसे पूजते थे,आज इसे दूजते हुए भी हमारे हाथ नहीं कांपते हैं। इतना ही नहीं, कुछ लोग इस धरती पर अभी भी इस झूठी उम्मीद में पैसे 'बो' रहे हैं, कि पैसों से प्यारे पेड़ उगेंगे। रुपयों की कलदार मधुर फसलें खनकेगी और वह फूल फूलकर धन्ना सेठ हो जाएंगे।

पर अबोध है इस बात से कि उन्होंने गलत बीज बोए है, वह भूल गए है कि उन्होंने ममता को रोपा है,तृष्णा को सींचा है । तो ’फल’ कहां से आएंगे, वे ‘फेल’ ही हो जाएंगे।


गौर करें --
तब गंगा हमारी 'मैया ' थी,
अब राजनीतिक 'सैंया' है।
तब सब तरफ 'हरियाली' थी,
अब सब तरफ 'अकाली ' है।
तब हवाओं में 'जादू' था,
अब 'नशा' है।
तब हर तरफ ' मंजर ' नजर आता था,
अब 'बंजर' है।
तब मनुष्य खेत ' जो ' कर धन कमाता था,
अब 'खो' कर।
तब सब तरफ 'हरे-भरे पेड़ ' हुआ करते थे,
अब सब तरफ 'ऊंचे-ऊंचे मॉल 'है।
तब हम आसमान में 'तारों की खोज' में व्यस्त थे,
अब 'सितारों के बोझ' से त्रस्त है।
तब मां के लिए 'आजादी की लड़ाई' लड़ने की ताकत थी,
अब मां के लिए 'खड़े रहने' की हिम्मत भी नहीं।
तब हर प्रॉब्लम का समाधान 'हल' था, अब 'हल' ही प्रॉब्लम है।
तब प्रकृति अपनी 'बाहें' फैलाए खड़ी थी,
अब प्राकृतिक 'आपदाएं' मुंह खोले खड़ी है ।
तब पृथ्वी का 'विकास' ख्वाब था हमारा,
अब 'ह्रास' सपना है हमारा !

संभल जाओ देश के पढ़े-लिखे नौजवानों अभी भी वक्त है।
'अर्थ' का कुछ करो ,
नहीं तो 'अनर्थ'हो जाएगा।
'धरा' नहीं होगी तो सब धरा रह जाएगा।

मेघनाशर्मा

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